सूरज ने सबेरे की ओर अपना पहला कदम जैसे ही बढ़ाया, हजारों नन्ही रश्मियों ने “दुबईन काकी" की डेहरी पर अपने आगमन का छींटा डाल दिया। धूप डेहरी से पसरते घर के भीतर दालान तक जा पहुँची। अभी कहाँ रूकने वाली? वह तो तुलसी के चोरे तक जा पहुँचीसफेद उजला रंग, माँ दुर्गा सी तिर्यक आँखे, परशुराम के धनुष सी वक्राकार भँवें, मंझोला कद, फक सफेद साड़ी। यही वेशभूषा थी दुबईन काकी की। "बाल विधवा" काकी जाने सधवा होती तो उनके रूप की लुनाई कैसी होती?
दो मंजिला हवेली, जिसमें आंगन में चम्पा का पेड़, उसके चारों ओर का चबूतरा, रात की रानी, दरवाजे के दोनों किनारे में झूमती ओर आने वालों का सत्कार करती। पूरी हवेली में मात्र दुबाईन काकी ओर उसकी दस बिल्लयों का साम्राज्य हुआ करता था। बाल विधवा वह भी निःसंतान । काकी के पति भी अपने चार चाचाओं व पिता के बीच इकलोते संतान थे जो असमय ही कालकलवित हो गयेनो वर्ष की आयु में गौना व ग्यारह वर्ष में वैधव्य। इन सबने “काकी की मृत्वत्सा होने की वसीयत पर मानो दस्तखत कर दिये थे।"